फिरोज कोंकणी: कहानी ‘डी-कंपनी’ के सबसे खतरनाक शूटर की
February 15, 2025 | by Deshvidesh News

जब भी 90 के दशक के मुंबई अंडरवर्ल्ड की बात होती है, तो दाऊद इब्राहिम, छोटा राजन, अरुण गवली, अश्विन नाईक और अबू सलेम जैसे नाम ज़रूर लिए जाते हैं, मगर इनके अलावा भी कई ऐसे अपराधी हुए, जिन्होंने अपने खौफ से शहर को हिला दिया और जिनकी ज़िंदगी में बड़े नाटकीय मोड़ आए. इन्हीं में से एक नाम था फिरोज कोंकणी. डी-कंपनी के इस कुख्यात गैंगस्टर ने न सिर्फ़ बीजेपी के एक बड़े नेता की हत्या की, बल्कि 1993 में मुंबई में दोबारा दंगे भड़काने में भी अहम भूमिका निभाई.
अपराध की दुनिया में पहला कदम
फिरोज कोंकणी का असली नाम फिरोज अब्दुल्ला सरगुरू था. वह दक्षिण मुंबई के डोंगरी के पास एक मुस्लिम बहुल इलाके में रहता था. चूंकि उसका परिवार कोंकण के रत्नागिरी से आया था, इसलिए उसे ‘कोंकणी’ कहा जाने लगा. 16 साल की उम्र में, जब ज़्यादातर बच्चे स्कूल की परीक्षा पास कर आगे की पढ़ाई के लिए कॉलेज में दाखिला लेने की जद्दोजहद कर रहे थे, तब फिरोज ने अपराध की दुनिया में कदम रख दिया.
मुंबई सेंट्रल के महाराष्ट्र कॉलेज में पढ़ने वाली एक लड़की से उसे बेइंतेहा मोहब्बत हो गई थी, मगर वह लड़की किसी और को चाहती थी. गुस्से में फिरोज ने उस लड़के पर चाकू से हमला कर उसकी हत्या कर दी. कुछ ही दिनों बाद, मुंबई पुलिस ने उसे गिरफ़्तार कर लिया और आर्थर रोड जेल भेज दिया.
जेल से अंडरवर्ल्ड तक का सफर
अंडरवर्ल्ड के लिए जेल सबसे बड़ा भर्ती केंद्र होती है. यहीं से फिरोज की मुलाकात डी-कंपनी के लोगों से हुई. वह निडर और गुस्सैल था, जेल में बड़े अपराधियों से भी भिड़ जाता था. डी-कंपनी के शूटरों ने उसकी इस फितरत को देखा और उसे अपने गिरोह में शामिल कर लिया. जल्द ही उसकी ज़मानत करवा कर उसे रिहा कर दिया गया.
1993 के मुंबई दंगे और कोंकणी की भूमिका
6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद मुंबई में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे, जिनमें सैकड़ों लोग मारे गए. हालांकि कुछ दिनों बाद हालात शांत होने लगे, मगर अफवाहों ने आग में घी डालने का काम किया.
मस्जिद बंदर इलाके में एक अफवाह फैली कि लंबे बालों वाला एक ड्रमर (ढोल बजाने वाला) गुपचुप तरीके से इलाके के मुसलमानों की हत्याएं कर रहा है. इसी दौरान, एक टीवी चैनल पर सूरत में मुसलमानों पर कथित अत्याचार की रिपोर्ट दिखाई गई, जिससे फिरोज बौखला गया. उसने अपने दोस्तों मोमिन, लाला और अन्य साथियों के साथ 6 जनवरी 1993 की रात उस ड्रमर को मारने का फैसला किया.

फिरोज कोंकणी (फाइल फोटो)
तलवार और चाकुओं से लैस होकर वे उमरखाड़ी, डोंगरी और मस्जिद बंदर की गलियों में उस ड्रमर को तलाशते रहे, मगर वह नहीं मिला. वे खाली हाथ लौटना नहीं चाहते थे, इसलिए उन्होंने रात को ट्रांसपोर्ट कंपनी के बाहर खड़े एक माथाड़ी मजदूर पर हमला कर दिया, जब दूसरा मजदूर उसे बचाने आया, तो उसे भी बेरहमी से मार डाला. अगली सुबह, दोनों मजदूरों के शव खून से लथपथ हालत में मिले.
इस घटना के एक दिन पहले ही जोगेश्वरी इलाके की गांधी चाल (जिसे गलती से राधाबाई चाल समझा गया) में एक परिवार को ज़िंदा जला दिया गया था. इन दोनों वारदातों ने मुंबई को फिर से सांप्रदायिक हिंसा की आग में झोंक दिया. शहर में एक बार फिर भीषण दंगे भड़क उठे, जो करीब एक हफ्ते तक चले. इस खून-खराबे को भड़काने में फिरोज कोंकणी की भी अहम भूमिका रही.
बीजेपी विधायक की हत्या और डी-कंपनी का प्लान
25 अगस्त 1994 की सुबह बीजेपी विधायक रामदास नायक खेरवाड़ी से अपनी कार में कहीं जाने के लिए निकले थे, तभी फिरोज ने उन पर AK-56 से 50 राउंड गोलियां दाग दीं.
यह पहली बार था जब जे.जे. हत्याकांड के बाद अंडरवर्ल्ड ने किसी हत्या के लिए AK-56 का इस्तेमाल किया था. इस वारदात ने पूरे देश में तहलका मचा दिया. रामदास नायक के अंतिम संस्कार में बीजेपी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी भी शामिल हुए थे. कुछ दिनों बाद, मुंबई पुलिस ने फिरोज को बेंगलुरु से गिरफ़्तार कर लिया, मगर कहानी यहीं खत्म नहीं हुई.
फरारी और कराची में मौत
डी-कंपनी ने फिरोज को जेल से छुड़ाने की साजिश रची. 1997 में, जब उसे जे.जे. अस्पताल मेडिकल चेकअप के लिए ले जाया जा रहा था, तब डी-कंपनी के शूटरों ने ठाणे पुलिस की टीम पर हमला कर दिया. इस हमले में कांस्टेबल बी.डी. कार्डिले की मौत हो गई और फिरोज फरार हो गया.
भागने के बाद वह नेपाल के रास्ते बैंकॉक और फिर कराची चला गया, मगर कराची में ही उसकी कहानी खत्म हो गई.
कुछ लोगों का कहना है कि छोटा शकील के साथ हुए विवाद के बाद उसने फिरोज को मरवा दिया, जबकि दूसरी कहानी के मुताबिक, फिरोज ने दाऊद के भाई अनीस के खिलाफ अपशब्द कहे थे. यह बातचीत किसी ने रिकॉर्ड करके अनीस को सुना दी, जिसके बाद अनीस इब्राहिम ने फिरोज की हत्या करवा दी.
अंडरवर्ल्ड की दुनिया में न दोस्ती होती है, न भरोसा और न कोई अंजाम अच्छा होता है, फिरोज कोंकणी की कहानी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है.
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