चार माह के बच्चे भी बता सकते हैं, विभिन्न भाषाओं की ध्वनियां कैसे बनती हैं: नई स्टडी में हुआ खुलासा
February 1, 2025 | by Deshvidesh News

सिडनी, एक फरवरी (द कन्वरसेशन) बच्चे, नन्हें जासूस होते हैं जो लगातार अपने आस-पास हो रही चीजों के बारे में सुराग जुटाते रहते हैं. आपने कभी गौर किया हो कि जब आप बात कर रहे होते हैं तो आपका बच्चा आपकी ओर बड़े ध्यान से देखता है, क्योंकि वह न सिर्फ मुंह से निकलने वाली ध्वनियों को ही समझ रहा होता, वह यह भी सीख रहा होता है कि वे ध्वनियां कैसे बनती हैं?
‘डेवलपमेंटल साइंस’ में प्रकाशित हमारे हालिया अध्ययन से पता चलता है कि ध्वनियों को सीखने की यह ललक बच्चे में चार माह की उम्र में ही जागने लगती है. माना जाता रहा है कि बच्चे छह से 12 माह की उम्र के बीच अपनी मूल भाषा सीखने के बाद ही ध्वनियों पर गौर करना शुरू करते हैं, लेकिन इस अध्ययन से यह धारणा भी टूट गई है. इससे हमें उन बच्चों को जल्द से जल्द समझने में मदद मिलेगी है जिनमें देरी से बोलना सीखने का खतरा हो सकता है.
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ध्वनियों को समूह में बांटकर समझते हैं:-
एक साल का होने तक बच्चे अपनी स्थानीय भाषा की ध्वनियों के प्रति काफी समझ रखने लगते हैं जिसे ‘परसेप्टिक अटैचमेंट’ कहा जाता है यानी उन्हें समस्वरता का बोध होने लगता है. इसे इस तरह से समझें कि उनका मस्तिष्क ध्वनियों के समूह में से उन ध्वनियों पर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास कर रहा होता है जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं.
लेकिन शुरुआती छह माह में बच्चे उन भाषाओं की ध्वनियों को भी पहचान सकते हैं जिन्हें उन्होंने कभी सुना भी नहीं है. उदाहरण के लिए वे हिंदी भाषा के कुछ भेदों को भी पहचान सकते हैं जो अंग्रेजी बोलने वाले व्यस्कों के लिए भी चुनौतीपूर्ण होता है या मंदारिन (चिनी भाषा) में विशिष्ट ध्वनि की पहचान कर सकते हैं चाहे वे अंग्रेजी बोलने वाले परिवार में पल रहे हों.
यह अविश्वसनीय क्षमता हमेशा के लिए नहीं रहती. छह से 12 माह के बीच, बच्चे अपना ध्यान उन ध्वनियों पर देना शुरू कर देते हैं जिन्हें वे अक्सर सुनते हैं. स्वरों के मामले में यह तालमेल लगभग छह माह की उम्र में होता है जबकि व्यंजन के मामले में दस माह की उम्र में. इस तरह से समझें कि बच्चे उन ध्वनियों पर अधिक ध्यान देते हैं जो महत्वपूर्ण हैं, जैसे अंग्रेजी में ‘आर’ और ‘एल’ के बीच का अंतर, जबकि वे उन ध्वनियों के प्रति संवेदनशीलता खो देते हैं जिन्हें वे नियमित रूप से नहीं सुनते.
अब तक, शोधकर्ताओं का मानना था कि शिशुओं को अधिक जटिल भाषा कौशल सीखने के लिए यह संकुचन प्रक्रिया जरूरी थी जैसे कि यह पता लगाना कि ‘बिन’ में ‘बी’ और ‘डिन’ में ‘डी’ अलग-अलग हैं क्योंकि एक को बोलने के लिए होठों का ज्यादा इस्तेमाल होता है और दूसरे को बोलने में जीभ का. लेकिन हमारे अध्ययन में पाया गया कि चार माह की उम्र के बच्चे, इस संकुचन के शुरू होने से बहुत पहले ही यह सीख रहे होते हैं कि ध्वनियां कैसे बनती हैं?
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लघु भाषाएं सीखना
इसे समझने के लिए एक उदाहरण दिया गया है. मान लीजिए कि आप किसी ऐसे व्यक्ति को सुन रहे हैं जो ऐसी भाषा बोल रहा है जिसे आप नहीं समझते. भले ही आपको शब्द समझ में न आ रहे हों, लेकिन आप देख सकते हैं कि ध्वनि निकालने के लिए उनके होंठ या जीभ कैसे हिलते हैं. चार माह के बच्चे भी ऐसा कर सकते हैं.
इसे समझाने के लिए हमने माता-पिता की सहमति के बाद चार से छह माह की उम्र के 34 बच्चों के साथ एक प्रयोग किया. हमने दो काल्पनिक लघु-भाषाओं का उपयोग करके एक ‘‘पैटर्न-मिलान” खेल खेला.
एक भाषा में होंठ के इस्तेमाल से बोले जाने वाले शब्द थे जैसे ‘बी’ और ‘वी’, जबकि दूसरी में जीभ के इस्तेमाल से बोले जाने वाले जैसे ‘डी’ और ‘जेड’. ‘बिवावो’ या ‘डिजालो’ जैसे प्रत्येक शब्द को एक कार्टून चित्र के साथ जोड़ा गया- होंठ के इस्तेमाल से बोले जाने वाले शब्दों के लिए एक जेलीफिश और जीभ के इस्तेमाल से बोले जाने वाले शब्दों के लिए एक केकड़ा.
एक शब्द की रिकॉर्डिंग उसी समय बजाई गई जब शब्द के साथ जोड़ी गई उसकी तस्वीर दिखाई गई. कार्टून को ही इसीलिए चुना गया क्योंकि बच्चे हमें यह नहीं बता सकते कि वे क्या सोच रहे हैं, लेकिन वे अपने दिमाग में कड़ियां जोड़ सकते हैं. इन चित्रों से हमें यह देखने में मदद मिली कि क्या बच्चे प्रत्येक लघु भाषा को सही चित्र से जोड़ सकते हैं.
जब बच्चों ने ये लघु भाषाएं सीख लीं और चित्रों का संयोजन सीख लिया, तो हमने चीजों को परखा. शब्दों को सुनने के बजाय उन्होंने एक व्यक्ति के चेहरे का मूक वीडियो देखा, जिसमें वे उन्हीं लघु-भाषाओं के शब्द बोल रहा था.
कुछ वीडियो में चेहरा उस कार्टून से मेल खाता था जिसके बारे में उन्होंने पहले सीखा जबकि अन्य में नहीं. इसके बाद हमने देखा कि बच्चे कितनी देर तक वीडियो देखते हैं- यह एक सामान्य तरीका है जिसका उपयोग शोधकर्ता यह देखने के लिए करते हैं कि उनका ध्यान किस चीज की ओर आकर्षित होता है.
बच्चे उन चीजों को अधिक देर तक देखते हैं जो उन्हें आश्चर्यचकित करती हैं या उनमें रुचि पैदा करती हैं, तथा उन चीजों को कम समय के लिए देखते हैं जो उन्हें देखी दिखाई सी लगती हैं, जिससे हमें यह समझने में मदद मिलती है कि वे जो देखते हैं उसे कैसे पहचानते हैं? परिणाम स्पष्ट है कि बच्चों ने उन वीडियो को काफी समय के लिए देखा, जिनमें चेहरा उनके सीखे गए वीडियो से मेल खाता था.
(द कन्वरसेशन)
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