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Exclusive: क्या भारत के लिए संजीवनी साबित होगा ‘वन नेशन वन इलेक्शन’, अर्थशास्त्र के शिल्पकारों से समझिए 

January 18, 2025 | by Deshvidesh News

Exclusive: क्या भारत के लिए संजीवनी साबित होगा ‘वन नेशन वन इलेक्शन’, अर्थशास्त्र के शिल्पकारों से समझिए

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नवंबर 2020 में पहली बार ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ पर बात की थी. मोदी ने कहा, “एक देश एक चुनाव सिर्फ चर्चा का विषय नहीं, बल्कि भारत की जरूरत है. हर कुछ महीने में कहीं न कहीं चुनाव हो रहे हैं. इससे विकास कार्यों पर प्रभाव पड़ता है. पूरे देश की विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव एक साथ होते हैं तो इससे चुनाव पर होने वाले खर्च में कमी आएगी.” मोदी के इस भाषण के करीब 4 साल बाद 17 दिसंबर 2024 को संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान लोकसभा में वन नेशन वन इलेक्शन के लिए 129वां संविधान संशोधन बिल पेश किया गया. हालांकि, विपक्ष के हंगामे और डिविजन वोटिंग के बाद इस बिल को JPC में भेजा गया है. सवाल ये है कि ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ भारत की इकोनॉमी को दुनिया की सबसे बड़ी तीसरी इकोनॉमी बनाने और विकसित भारत के लक्ष्य को हासिल करने के लिए कितना जरूरी है?

NDTV के एडिटर इन चीफ संजय पुगलिया के साथ एक्सक्लूसिव बातचीत में 16वें वित्त आयोग के चेयरमैन डॉ. अरविन्द पानगड़िया और 15वें वित्त आयोग के चेयरमैन रहे एनके सिंह बताया है कि वन नेशन वन इलेक्शन देश की अर्थव्यवस्था के लिए कैसे संजीवनी साबित हो सकता है:-

16वें वित्त आयोग के चेयरमैन अरविन्द पानगड़िया बताते हैं, “इकोनॉमिक रिफॉर्म के रास्ते में वन नेशन वन इलेक्शन बहुत अहम है. इसके फायदे लॉन्ग टर्म में हैं. इकोनॉमिक रिफॉर्म्स के नजरिए से देखें, तो जब इलेक्शन 5 साल में एक बार होने लगेंगे; तो सरकारों को रिफॉर्म करने के लिए बड़ा विंडो और ज्यादा वक्त मिलेगा. अभी ऐसा रिफॉर्म करना सरकार के लिए बहुत मुश्किल है.”

उन्होंने बताया, “मोदी सरकार मई 2024 में चुनकर आई. इसके बाद एक के बाद एक स्टेट इलेक्शन हो रहे हैं. अगर एक साल का विंडो भी लें, उसमें भी एक दिल्ली का इलेक्शन है और फिर बिहार में चुनाव होने हैं. ऐसे में रिफॉर्म के लिए सरकार को पर्याप्त समय नहीं मिलता. इसलिए अगर केंद्र और राज्य सरकारों के चुनाव एक साथ कराए जाते हैं, तो हमें उसका बड़ा रिटर्न मिलेगा.”

सरकार की डिलिवरी देखती है इलेक्टोरेट
पानगड़िया बताते हैं, “वन नेशन वन इलेक्शन को लेकर बेशक राज्य सरकारों में भी जागरुकता है. क्योंकि जो सरकारें काम नहीं कर पाती, इलेक्टोरेट उन्हें बदल देती है. इसके कई उदाहरण हैं. राजस्थान में सरकार बदल गई. आंध्र प्रदेश में भी यही हुआ. लेकिन जहां सरकारों की डिलिवरी अच्छी है, वो वापस आती हैं. जैसे ओडिशा में नवीन पटनायक 20 साल तक CM रहे. खुद PM मोदी गुजरात में लंबे समय तक CM रह चुके हैं. यानी जहां-जहां सरकारों ने डिलिवरी अच्छी दी है, इलेक्टोरेट उसका साथ देता है.”

राजनीतिक पार्टियों को इसका अहसास
उन्होंने कहा, “राजनीतिक पार्टियों को भी इसका अहसास होने लगा है. इसलिए अब ज्यादातर राज्य सरकारें अपना काम दिखाने लगी हैं. तेजी से तरक्की करते राज्यों में उनमें ज्यादा जागरुकता है. इसलिए वन नेशन वन इलेक्शन में हमें ऐसे राज्यों का भी सहयोग मिलेगा.”

इलेक्टोरल रिफॉर्म का होगा लॉन्ग टर्म फायदा
15वें वित्त आयोग के चेयरमैन रहे एनके सिंह भी देश में इलेक्टोरल रिफॉर्म की बात करते हैं. उन्होंने बताया, “PM मोदी ने इलेक्टोरल रिफॉर्म की पहल भी कर दी है. पार्लियामेंट में बिल भी पेश किया जा चुका है. ये बिल है-वन नेशन वन इलेक्शन. फिलहाल ये JPC में है. अभी जितने इलेक्शन हो रहे हैं, उन्हें मिला दिया जाए और इलेक्शन प्रोसेस में बदलाव लाया जाए तो चुनावी खर्चों, राजकोषीय घाटे, शासन के ढांचे पर इसका सीधा असर पड़ेगा. आगे जाकर ये असर फायदेमंद साबित होगा.”

उन्होंने कहा, “ज्यूडिशियल रिफॉर्म की बात करें, तो सरकार ने इसपर एजेंडा शुरू किया था. लेकिन इसे रिवाइव करने की जरूरत है.” 

अब वन नेशन वन इलेक्शन के बारे में जानिए…

भारत में फिलहाल राज्यों के विधानसभा और देश के लोकसभा चुनाव अलग-अलग समय पर होते हैं. वन नेशन वन इलेक्शन का मतलब है कि पूरे देश में एक साथ ही लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव हों.

कब पेश हुआ बिल?
सरकार ने 17 दिसंबर 2024 को ‘संविधान (129वां संशोधन) विधेयक, 2024′ और उससे जुड़े ‘संघ राज्य क्षेत्र विधि (संशोधन) विधेयक, 2024′ लोकसभा में पेश किया. इसपर डिविजन वोटिंग हुई. इस बिल को साधारण बहुमत से पारित किया किया. 269 ​​सांसदों ने इसके पक्ष में वोटिंग की. 198 सांसदों ने इस बिल के विरोध में वोट डाला. विपक्ष के हंगामे के बाद इस बिल को फिलहाल JPC में भेजा गया है.

इस बिल के विरोध में क्या तर्क दिए जा रहे हैं?
वन नेशन वन इलेक्शन को लेकर विपक्ष कई तरह के तर्क दे रहा है. कांग्रेस का तर्क है कि एक साथ चुनाव हुए, तो वोटर्स के फैसले पर असर पड़ने की संभावना है. चुनाव 5 साल में एक बार होंगे, तो जनता के प्रति सरकार की जवाबदेही कम हो जाएगी. 

वन नेशन वन इलेक्शन पर विचार के लिए बनी थी कौन सी कमेटी?
वन नेशन वन इलेक्शन पर विचार के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में 2 सितंबर 2023 को कमेटी बनाई गई थी. कोविंद की कमेटी में गृह मंत्री अमित शाह, पूर्व सांसद गुलाम नबी आजाद, जाने माने वकील हरीश साल्वे, कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी, 15वें वित्त आयोग के पूर्व अध्यक्ष एनके सिंह, पॉलिटिकल साइंटिस्ट सुभाष कश्यप, पूर्व केंद्रीय सतर्कता आयुक्त(CVC) संजय कोठारी समेत 8 मेंबर हैं. केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल कमेटी के स्पेशल मेंबर बनाए गए हैं. कमेटी ने 14 मार्च को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी. इसे 18 सितंबर को मोदी कैबिनेट ने मंजूरी दी. 

कोविंद कमेटी ने वन नेशन वन इलेक्शन पर क्या दिया सुझाव?
-कोविंद कमेटी ने सुझाव दिया कि सभी राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल अगले लोकसभा चुनाव यानी 2029 तक बढ़ाया जाए.
-पहले फेज में लोकसभा-विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जा सकते हैं. दूसरे फेज में 100 दिनों के अंदर निकाय चुनाव कराए जा सकते हैं.
-हंग असेंबली, नो कॉन्फिडेंस मोशन होने पर बाकी 5 साल के कार्यकाल के लिए नए सिरे से चुनाव कराए जा सकते हैं.
-इलेक्शन कमीशन लोकसभा, विधानसभा, स्थानीय निकाय चुनावों के लिए राज्य चुनाव अधिकारियों की सलाह से सिंगल वोटर लिस्ट और वोटर आई कार्ड तैयार कर सकता है.
-कोविंद पैनल ने एकसाथ चुनाव कराने के लिए डिवाइसों, मैन पावर और सिक्योरिटी फोर्स की एडवांस प्लानिंग की सिफारिश भी की है.

कैसे तैयार हुई रिपोर्ट?
कमेटी ने इसके लिए 62 राजनीतिक पार्टियों से संपर्क किया. इनमें से 32 पार्टियों ने वन नेशन वन इलेक्शन का समर्थन किया. वहीं, 15 दलों ने इसका विरोध किया था. जबकि 15 ऐसी पार्टियां भी थीं, जिन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. 191 दिन की रिसर्च के बाद कमेटी ने 14 मार्च को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को अपनी रिपोर्ट सौंपी. कमेटी की रिपोर्ट 18 हजार 626 पेज की है.

किन देशों से लिया कौन सा रेफरेंस?
-वन नेशन वन इलेक्शन के लिए कई देशों के संविधान का एनालिसिस किया गया. कमेटी ने स्वीडन, जापान, जर्मनी, दक्षिण अफ्रीका, बेल्जियम, फिलीपिंस, इंडोनेशिया के इलेक्शन प्रोसेस की स्टडी की. 
-दक्षिण अफ्रीका में अगले साल मई में लोकसभाओं और विधानसभाओं के इलेक्शन होंगे. जबकि स्वीडन इलेक्शन प्रोसेस के लिए आनुपातिक चुनावी प्रणाली यानी Proportional Electoral System अपनाता है. 
-जर्मनी और जापान की बात करें, तो यहां पहले पीएम का सिलेक्शन होता है, फिर बाकी चुनाव होते हैं. 
-इसी तरह इंडोनेशिया में भी राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव साथ में होते हैं.

वन नेशन वन इलेक्शन के लिए कौन सी पार्टियां तैयार?
वन नेशन वन इलेक्शन का BJP, नीतीश कुमार की JDU, तेलुगू देशम पार्टी (TDP), चिराग पासवान की LJP ने समर्थन किया है.  इसके साथ ही असम गण परिषद, मायावती की बहुजन समाज पार्टी (BSP) और शिवसेना (शिंदे) गुट ने भी वन नेशन वन इलेक्शन का समर्थन किया है.

किन पार्टियों ने विरोध किया?
वन नेशन वन इलेक्शन का विरोध करने वाली सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस है. इसके अलावा समाजवादी पार्टी (SP), आम आदमी पार्टी (AAP), सीपीएम (CPM) समेत 15 दल इसके खिलाफ थे. जबकि झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM), इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (IUML) समेत 15 दलों ने वन नेशन वन इलेक्शन पर कोई जवाब नहीं दिया.

विधि आयोग के मुताबिक, वन नेशन वन इलेक्शन के प्रस्ताव से संविधान के अनुच्छेद 328 पर भी प्रभाव पड़ेगा, जिसके लिए अधिकतम राज्यों का अनुमोदन लेना पड़ सकता है. संविधान के अनुच्छेद 368(2) के अनुसार ऐसे संशोधन के लिए न्यूनतम 50% राज्यों के अनुमोदन की जरूरत होती है.

क्या देश में एक साथ चुनाव कराना संभव है?
वन नेशन वन इलेक्शन को संसद में पास कराने के लिए दो-तिहाई राज्यों की रजामंदी की जरूरत होगी. अगर बाकी राज्यों से सहमति लेने की जरूरत हुई, तो ज्यादातर नॉन BJP सरकारें इसका विरोध करेंगी. विपक्ष के कई दलों ने इसके संकेत पहले ही दे दिए हैं. वहीं, अगर सिर्फ संसद से पारित कराकर कानून बनाना संभव हुआ, तब भी कानूनी तौर पर कई दिक्कतें आ सकती हैं. जिन राज्यों में हाल में सरकार चुनी गई है, वो इसका विरोध करेंगे. टेन्योर को लेकर वो सुप्रीम कोर्ट भी जा सकते हैं. BJP और नॉन BJP राज्य सरकारों में मतभेद इतना ज्यादा है कि वन नेशन वन इलेक्शन पर आम सहमति बनाएंगे, ऐसा मुमकिन नहीं लगता.

वन नेशन वन इलेक्शन लागू हुआ तो किन विधानसभाओं का कम हो सकता है कार्यकाल?
वन नेशन वन इलेक्शन लागू हुआ तो उत्तर प्रदेश, गोवा, मणिपुर, पंजाब व उत्तराखंड का मौजूदा कार्यकाल 3 से 5 महीने घटेगा. 
गुजरात, कर्नाटक, हिमाचल, मेघालय, नगालैंड, त्रिपुरा का कार्यकाल भी 13 से 17 माह घटेगा. असम, केरल, तमिलनाडु, प. बंगाल और पुडुचेरी मौजूदा कार्यकाल कम होगा.

 

 

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