
New Delhi Railway Station Stampede: नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर भगदड़ की घटना ज़्यादातर लोगों के लिए एक ख़बर है. दिल्ली की देसी मीडिया ने तो इस ख़बर को जमकर बताया ही, विदेशी मीडिया में भी इसकी चर्चा हुई. लेकिन एक बहुत बड़ी आबादी के लिए यह एक ख़बर नहीं, आपबीती है.
ये वो लोग हैं जो यूपी, बिहार, झारखंड, बंगाल और दूसरे राज्यों से काम करने दिल्ली आए हैं. दिल्ली ने उनकी ज़िंदगी जितनी भी बदल दी हो, उनकी जेबों में जितने भी पैसे डाल दिए हों, लेकिन जब-जब वो अपने घर जाते हैं, या घर जाने का ख़याल भी बनाते हैं, उन्हें अहसास हो जाता है कि यात्रा के मामले में उनकी ज़िंदगी जस की तस है. वंदे भारत, नमो भारत, राजधानी, शताब्दी जैसी ट्रेन हैं, लेकिन उनके लिए नहीं है.

नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के एक प्लेटफार्म की सीढ़ियों पर लगी यात्रियों की भीड़.
ऐसे ही दिल्ली-पटना, दिल्ली-दरभंगा, दिल्ली-रांची, दिल्ली-कोलकाता, दिल्ली-बनारस और अब तो दिल्ली-अयोध्या भी – ये सब हवाई मार्ग से जुड़ गए हैं, लेकिन इस मार्ग से कोई दूसरी आबादी यात्रा करती है. नोएडा में नया एयरपोर्ट बन रहा होगा, लेकिन इस आबादी को पता है कि ये उनके लिए नहीं है.
गरीबों की गाड़ी रेल
कमाने के लिए दिल्ली आने वाली सबसे बड़ी आबादी का सहारा अब भी रेल ही है. रेल यात्रा पहले भी उसकी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा थी, और अब भी है. महाकुंभ के दौरान स्टेशनों पर जो भीड़ दिखाई दे रही है उनमें ज़्यादातर इसी आबादी का हिस्सा हैं.
भगदड़ ज़रूर मची, लोग मारे भी गए, लेकिन इस आबादी को ये पता है कि चाहे जो हो, नेता जितना भी एक-दूसरे को कोसें, मीडिया वाले जितनी भी चीख-पुकार मचा लें, सोशल मीडिया पर जितनी लानत-मलामत हो जाए, उनके जीवन की सच्चाई नहीं बदलेगी. ट्रेन से उनका साथ नहीं छूटेगा. और ट्रेन से ऐसे ही लड़ते-भिड़ते सफर करना होगा.
टिकट लेने से शुरू होती है लड़ाई
सबसे पहली लड़ाई तो टिकट लेने से ही शुरू हो जाती है. शायद ही कोई ऐसा ख़ुशनसीब मिलेगा जिसे बिना कोई संघर्ष किए उस दिन का टिकट मिल जाए, जिस दिन यात्रा करनी है, उसी ट्रेन में मिल जाए, जिससे वो जाना चाहते हैं, वही बर्थ मिल जाए जो वो चाहते हैं. लेकिन यही संघर्ष आसान हो जाता है अगर आप किसी ट्रैवल एजेंट के पास पहुँच जाएँ. वो थोड़े ज़्यादा पैसे लेगा, और तत्काल कोटे से टिकट करवा देगा. कहने को, तो तत्काल कोटे से कोई भी ख़ुद अपना टिकट ले सकता है, लेकिन जिन लोगों ने ख़ुद कभी इसका प्रयास किया है उन्हें बख़ूबी पता है कि इसमें सफलता की गुंजाइश कितनी है.

नई दिल्ली रेलवे स्टेशन की एक टिकट खिड़की.
एक आसान रास्ता ये भी है कि अगर आपकी किसी नेता या अधिकारी तक पहुँच है तो हेडक्वार्टर कोटा से आपका टिकट कन्फ़र्म हो सकता है. लेकिन अगर आपके पास ट्रैवल एजेंट को देने के लिए पैसे नहीं हैं, या आप किसी वीआईपी तक नहीं पहुँच सकते, तो इसके बाद आपको टिकट मिल सकेगा कि नहीं, ये पूरी तरह आपके सितारों पर निर्भर करेगा. सितारे साथ रहे तो टिकट मिलेगा, वरना बिना किसी जुगत के मिलना मुश्किल है.
अब अगर टिकट मिल गया और आप नई दिल्ली स्टेशन पहुंच गए, तो भी आप ये मानकर ना चलें कि सबकुछ सामान्य रहेगा, क्योंकि वहाँ कुछ भी हो सकता है. जैसे, दिल्ली के व्यस्ततम इलाकों में बसे स्टेशन के ठीक पहले ट्रैफ़िक जाम हो सकता है, और आपकी धड़कनें तेज़ हो सकती हैं कि पता नहीं आप समय पर पहुँच सकेंगे कि नहीं.
स्टेशन पहुँच गए, तो आपको समझ नहीं आएगा कि किस प्लेटफॉर्म पर जाना है, क्योंकि प्लेटफॉर्म का पता लगाने से पहले इस बात का पता लगाना होगा, कि इस बात का पता लगाने के लिए कहाँ जाना चाहिए. जो सूचना बड़ी आसानी से स्टेशन के बाहर किसी बड़ी स्क्रीन पर दी जा सकती है, और पटना जैसे स्टेशनों पर है भी, वह सूचना नई दिल्ली स्टेशन पर किसी अज्ञात कारण से, या आदतवश, एक खास स्थान पर ही दी जाती है. इसे जानने के लिए यात्रियों को सारा साज़ो-सामान लादे, छोटे बच्चों को ढोते मुख्य इमारत के अंदर जाना होता है. जो स्मार्ट यात्री हैं, वो स्मार्ट फ़ोन से पता लगा लेते हैं, लेकिन ज़रूरी नहीं कि सबको यह स्मार्ट तरीका पता हो.
रेलवे स्टेशन का हाल
ट्रैफ़िक जाम से बच कर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँचने का एक आसान उपाय मेट्रो ट्रेन है. लेकिन, वहाँ भी आपको संघर्ष के लिए प्रस्तुत होना पड़ सकता है, क्योंकि ऐसा बहुत संभव है कि आपको भूमिगत रेल स्टेशन से बाहर आने के लिए स्वचालित सीढ़ी (एस्केलेटर) या लिफ़्ट नज़र नहीं आएँ, और आपको अपने भारी-भरकम सामानों को किसी तरह खींचते-लादते हुए बाहर आना पड़े, क्योंकि तब आपको अचानक समझ आएगा कि आपने जो खूबसूरत पहिए वाले बैग-सूटकेस खरीदे हैं, वो पहिए सीढ़ियों पर किसी काम के नहीं होते.
क्या बच्चे-क्या बूढ़े, क्या रोगी- क्या दिव्यांग, सभी लंबी सीढ़ियाँ चढ़ते बाहर निकलते नज़र आ जाएँगे. हैरान-परेशान यात्री एक पल ठिठकेंगे, लेकिन ना तो कोई बतानेवाला नज़र आएगा कि बिना सीढ़ियाँ चढ़े ऊपर कैसे जाएँ, ना कहीं कोई सूचना दिखी नज़र आएगी. नज़र आएगी तो सिर्फ़ भीड़, जिसका हिस्सा बन यात्री मेट्रो स्टेशन से मुख्य रेलवे स्टेशन तक पहुँच जाएगा, और फिर प्लेटफ़ॉर्म का पता लगाने के अभियान में जुट जाएगा.

नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के एक प्लेटफार्म पर ट्रेन का इंतजार करते रेल यात्री.
अब प्लेटफ़ॉर्म का नंबर पता लगने के बाद प्लेटफ़ॉर्म तक पहुँचने का संघर्ष शुरू होगा, क्योंकि नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर यात्री अपने सामान सुरक्षा मशीन से जाँच के बाद ही ले जा सकते हैं. वहाँ आपका सामना होगा आपाधापी और अव्यवस्था से. हो सकता है वहाँ आपको एक बहुत लंबी लाईन लगी दिखाई दे, जो कुली को पैसे देते ही अपने-आप छोटी हो जाती है, क्योंकि कुली को शॉर्ट कट रास्ते का पता होता है. या अगर आप लाईन में लगकर सुरक्षा मशीन तक पहुँच भी गए, तो हो सकता है कि वहाँ कोई दबंग और ताक़तवर मिल जाए, वो लाईन की परवाह किए बिना अपने सामान आगे करते जाएँगे और लंबी लाईन लगाकर वहाँ पहुँचा यात्री ठगा-सा महसूस करेगा.
रेलवे स्टेशन की अफरा-तफरी
अब सुरक्षा मशीन से जाँच वाले इस चरण से आगे आप निकल गए, तो आपको मिलेगा फुट ओवरब्रिज. आप इस पर जाएँगे, और फिर बारी-बारी से प्लेटफ़ॉर्म आते जाएँगे, और आपको अपने प्लेटफॉर्म पर पहुँचने के लिए फिर सीढ़ियों की सहायता लेनी होगी. अगर आप भाग्यशाली रहे तो हो सकता है कि स्वचालित सीढ़ियाँ मिल जाएँ, और वो काम भी कर रही हों. लेकिन इसकी कोई गारंटी नहीं है.
लेकिन, इससे पहले एक और स्थिति हो सकती है. हो सकता है कि ओवरब्रिज परइतनी भीड़ हो जाए कि आपको जिस प्लेटफॉर्म पर उतरना है, वहाँ पहुँच ही नहीं पाएँ. इसकी आशंका तब और बढ़ जाएगी जब उसी समय कोई ट्रेन आई हो, और उसके यात्री भी इसी ओवरब्रिज से विपरीत दिशा में जाने की कोशिश करते मिल जाएँ. एक बार फिर वहाँ आपको वही भीड़ मिलेगी जिसमें आप कुछ देर ठहर कर कुछ समझ सकें, उसका भी मौक़ा नहीं मिले.

दिल्ली से रेल यात्रा कर पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड या पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में जाना किसी सजा से कम नहीं होता है.
लेकिन अगर आप अपने प्लेटफ़ॉर्म पर पहुँच भी गए, तो भी आपकी साँसें अटकी रहेंगी और आपको चौकन्ना रहना होगा. ऐसा इसलिए, क्योंकि हो सकता है आपकी ट्रेन का प्लेटफ़ॉर्म ऐन मौक़े पर बदल जाए. कहने के लिए हर प्लेटफ़ॉर्म पर अनाउंसमेंट सिस्टम होता है. लेकिन इसके बावजूद आप रिस्क नहीं ले सकते, क्योंकि हो सकता है अनाउंसर जो बोल रहा हो वो ख़राब साउंड सिस्टम की वजह से आपको समझ ही नहीं आए. या, उसी समय पास की ट्रैक पर कोई ट्रेन खड़ी हो जिसका इंजिन अपने शोर में सारी आवाज़ों को दबा दे..
यह देश की राजधानी नई दिल्ली के रेलवे स्टेशन से यात्रा करने वाले एक सामान्य यात्री के एक सामान्य दिन की स्थिति है. हो सकता है, ऊपर जो लिखा है वैसा कुछ भी ना हो – लेकिन इसके लिए आपको बहुत ही ज़्यादा खुशकिस्मत होना होगा. और सामान्य यात्री जानते हैं, पर्व-त्योहार-परीक्षा-रैलियों वाले देश में सामान्य स्थिति का मिलना कितना असामान्य है. अब अगर महाकुंभ हो, तो फिर स्थिति कैसी हो सकती है, इसका अंदाज़ा लेने के लिए इस सामान्य यात्री को किसी टीवी चैनल या सोशल मीडिया की ज़रूरत नहीं होगी. उसे पता है कि नई दिल्ली रेलवे स्टेशन का मतलब ही भीड़ है, अव्यवस्था है.
ये भी पढ़ें: ‘महाकुंभ’ अब ‘मृत्युकुंभ’ बन गया है : ममता बनर्जी ने बीजेपी सरकार पर लगाए कई आरोप
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